वो अक्सर पूछा करती थी मुझसे कि मैं उसे इतना क्यूं चाहता हूँ?
और कसम से मेरे पास इसका कभी कोई जवाब नही होता था
मैं बस सोचता था कि
नदी पर्वत से निकल कर सागर से क्यूं मिलती है?
रेत हवा का साथ पाते ही क्यूं उड़ती है?
ये बारिश है या अपने आसमां से बिछड़ कर बादल रोता है?
ये रात है या बस चांद अपनी चांदनी के पास होता है?
कैसे एक अबोध बच्चा सिर्फ स्पेश से अपनी मां को पहचान जाता है ?
कैसे वो नमकीन दरिया बादलों से मिलकर मीठा बन जाता है?
ये जानते हुए भी कि नहीं पहुँच पाएगी उस तक,
फिर भी क्यूं सागर की लहरें चांद को छूने की कोशिश करती है?
महलों का सुख छोड़, क्यूं सती शिव के साथ शमशान में वास करती है?
हजारों पत्नियां थी कृष्ण की मगर,
फिर भी उनके बगल में राधा की मूरत क्यूं लगती है?
मैं तुम्हें क्यूं चाहता हूँ?
मैं तुम्हें कितना चाहता हूँ ?
मैं तुम्हें कबसे चाहता हूँ?
इन सवालों के जवाब शायद कभी दे ही ना पाऊं मैं
क्यूंकि मेरा प्रेम इन जवाबों की परिधि के परे है।
प्रेम को सवाल – जवाब की परिधि में बांधना,
उस प्रेम की हत्या करना है।
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